महाकुम्भ
मेला एवं उसका इतिहास | कुम्भ का मेला एक बड़ा एवम भव्य आयोजन हैं
क्यूँ किया जाता हैं यह आयोजन विस्तार से पढ़े |
महाकुम्भ सिंहस्थ महत्व
नासिक कुम्भ मेला / सिंहस्थ मेला भारत का पवित्र त्यौहार माना जाता
हैं | इसका आयोजन एक बड़े पैमाने पर
किया जाता हैं | इसके पीछे यह मान्यता हैं कि जब
देवता और दानव अमृत के लिए लड़ रहे थे तब भगवान विष्णु अमृत का घड़ा लेकर भाग जाते
हैं उस वक्त इस अमृत की चार बुँदे अलग- अलग स्थान पर गिर जाती हैं और वे स्थान
पवित्र हो जाते हैं इसलिये उन स्थानों पर प्रति बारह वर्षों में कुम्भ मेले का
आयोजन किया जाता हैं | वे
चार पवित्र स्थान नासिक, उज्जैन, प्रयाग एवम हरिद्वार हैं |
कुम्भ मेले का आयोजन किस शुभ काल
में किया जाता हैं ?
चार अलग- अलग स्थानों पर चार
भिन्न- भिन्न शुभकाल होते हैं जो इस प्रकार हैं
·
नासिक कुम्भ मेला शुभकाल :
कुम्भ मेले का शुभ काल वृहस्पति एवम सूर्य की स्थिती पर निर्भर करता
हैं |जब सूर्य एवम वृहस्पति सिंह राशि में प्रवेश
करते हैं तब इस कुम्भ मेले का आयोजन नासिक त्रयम्बकेश्वर में किया जाता हैं |यह कुम्भ मेला गोदावरी नदी के तट पर लगता हैं |
·
हरिद्वार कुम्भ मेला शुभकाल :
जब सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता हैं एवम वृहस्पति कुम्भ राशि में
प्रवेश करता हैं | तब हरिद्वार में कुम्भ मेले का
आयोजन किया जाता हैं | यह कुम्भ मेला गंगा नदी के तट पर
लगता हैं |
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प्रयाग कुम्भ मेला शुभकाल :
जब सूर्य वृषभ राशि और वृहस्पति मकर राशि में प्रवेश करता हैं | तब प्रयाग कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता हैं |यह कुम्भ मेला त्रिवेणी संगम पर लगता हैं जहाँ गंगा, जमुना एवम सरस्वती एक दुसरे में मिलती हैं |
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उज्जैन कुम्भ मेला शुभकाल :
जब सूर्य एवम वृहस्पति वृश्चिक राशि में प्रवेश करता हैं | तब उज्जैन में कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता हैं |यह कुम्भ मेला शिप्रा नदी के तट पर लगता हैं |
नासिक कुम्भ मेला 2015
कुम्भ मेले का आयोजन बहुत बड़े
स्तर पर किया जाता हैं | श्रद्धालु इसे धूमधाम से मनाते हैं
| इस मेले की भव्यता इतनी व्यापक
होती हैं कि देखने वालो कि साँसे एक पल के लिए ठहर जाती हैं | श्रद्धालु मान्यतानुसार विधि
विधान से धार्मिक अनुष्ठान करते हैं | धार्मिक अनुष्ठानों में धार्मिक
प्रवचन, गरीबो एवम ब्राह्मणों को दान
दिया जाता हैं | बड़े स्तर पर भोज का आयोजन किया
जाता हैं |
सभी कुम्भ मेले नदी तट पर आयोजित
किये जाते हैं | इस प्रकार कुम्भ मेले में पवित्र
नदी स्नान का सबसे अधिक महत्व होता हैं |
नासिक कुम्भ मेला :
नासिक कुम्भ मेला त्रयम्बकेश्वर
में मनाया जाता हैं यह महाराष्ट्र में आता हैं | त्रयम्बकेश्वर एक पवित्र स्थान हैं यह बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक हैं |कुम्भ मेला बारह वर्षों में एक
बार आयोजित किया जाता हैं इसे सिंहस्त भी कहा जाता हैं |
नासिक कुम्भ मेला शाही स्नान :
नासिक कुम्भ मेला 2003 में आयोजित हुआ था | इसके बाद यह मेला अब 2015 में बारह वर्षो बाद फिर से नासिक में आयोजित हुआ हैं |यह मेला नासिक त्रयम्बकेश्वर में
14 जुलाई से 25 सितम्बर तक हैं |
सरकार ने भव्य स्तर पर आयोजन किया हैं | देश भर के श्रद्धालु इस कुम्भ
मेले/ सिंहस्त में आते हैं | जिनके लिए सुरक्षा, रहने, खाने पीने एक सभी इंतजाम किये जाते
हैं | सूत्रों में मुताबिक इस वर्ष आयोजित इस नासिक कुम्भ मेले में सफाई योजना के
तहत सफाई पर बहुत अधिक ध्यान दिया जा रहा हैं |
कुम्भ मेले/ सिंहस्त में सबसे अधिक स्नान का महत्व होता हैं | यह स्नान विशेष तिथी पर और अधिक
पवित्र माना जाता हैं | नीचे दी गई तालिका हैं नासिक कुम्भ मेला/ सिंहस्त के स्नान की तारीख एवम तिथी
लिखी गई हैं |
नासिक कुम्भ मेला शाही स्नान तिथी :
क्र.
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दिनांक
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वार
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उत्सव
|
1
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14 जुलाई 2015
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मंगलवार
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राम कुण्ड पर मुख्य समारोह का
ध्वज आरोहण
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2
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14 अगस्त 2015
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शुक्रवार
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साधुग्राम अखाड़े में ध्वज
आरोहण
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3
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26 अगस्त 2015
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बुधवार
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प्रथम श्रावण स्नान
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4
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29 अगस्त 2015
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शनिवार
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श्रावण पूर्णिमा प्रथम शाही
स्नान
|
5
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13 सितम्बर 2015
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रविवार
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भादो अमावस द्वितीय शाही स्नान
(मुख्य स्नान )
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6
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18 सितम्बर 2015
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शुक्रवार
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भादों शुक्ल पंचमी (ऋषि पंचमी)
तृतीय शाही स्नान
|
7
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25 सितम्बर 2015
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शुक्रवार
|
भादों शुक्ल द्वादशी वामन
द्वादशी स्नान
|
नागा साधू :
कुम्भ मेले में बड़ी मात्रा में नागा साधू भाग लेते हैं | ये साधू वर्षो तक हिमालय की
गुफाओं में कठिन साधना, तपस्या में लीन रहते हैं | ये केवल सिंहस्त कुम्भ के समय ही
बाहर आते हैं | मान्यता यह कि सिंहस्त कुम्भ में अमृत बरसता हैं | ये साधू उस पवित्र अमृत की चाह
में ही सामान्य जनता के बीच आते हैं और स्नान कर वापस उन्ही हिमालय की पहाड़ियों
में चले जाते हैं |
इस साधुओं को दुनियाँ के किसी आडम्बर से कोई मतलब नहीं होता | इनकी उम्र कितनी हैं | यह भी नहीं कहा जा सकता | तपस्या में लीन इन साधुओं की
जटाएं बड़ी- बड़ी हो जाती हैं | हिमालय की ठण्ड में ये साधू बिना
कोई गरम कपड़े पहने तपस्या में लीन रहते हैं | और वहाँ सूखे कंद मूल फल खाकर
अपना जीवन बिताते हैं | यह केवल इस अमृत की चाह में उन डरावनी गुफाओं में तपस्या करते रहते हैं |
कुम्भ मेला की पौराणिक कहानी :
कुंभ पर्व हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण
पर्व है, जिसमें करोड़ों श्रद्धालु कुंभ पर्व स्थल- हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक- में स्नान करते
हैं। इनमें से प्रत्येक स्थान पर प्रति बारहवें वर्ष इस पर्व का आयोजन होता है।
हरिद्वार और प्रयाग में दो कुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल मेंअर्धकुंभ भी होता है। २०१३ का कुम्भ प्रयाग में हो रहा है।
खगोल गणनाओं के अनुसार यह मेला मकर संक्रांति के दिन प्रारम्भ
होता है, जब सूर्य और चन्द्रमा, वृश्चिक राशी में और वृहस्पति, मेष राशी में प्रवेश करते हैं। मकर संक्रांति के होने वाले इस
योग को "कुम्भ स्नान-योग" कहते हैं और इस दिन को विशेष मंगलिक माना जाता
है, क्योंकि यह माना जाता है कि इस दिन पृथ्वी से उच्च लोकों के
द्वार इस दिन खुलते हैं और इस प्रकार इस दिन स्नान करने से आत्मा को
उच्च लोकों की प्राप्ति सहजता से हो जाती है।
कुंभ पर्व के
आयोजन को लेकर दो-तीन पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं जिनमें से सर्वाधिक मान्य कथा
देव-दानवों द्वारा समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत कुंभ से अमृत बूँदें गिरने को
लेकर है। इस कथा के अनुसार महर्षि दुर्वासा के शाप के कारण
जब इंद्र और अन्य देवता
कमजोर हो गए तो दैत्यों ने देवताओं पर आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया। तब सब
देवता मिलकर भगवान विष्णु के पास गए और
उन्हे सारा वृतान्त सुनाया। तब भगवान विष्णु ने उन्हे दैत्यों के साथ मिलकर क्षीरसागर का मंथन करके अमृत निकालने की सलाह दी। भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर
संपूर्ण देवता दैत्यों के साथ संधि करके अमृत निकालने के यत्न में लग गए। अमृत
कुंभ के निकलते ही देवताओं के इशारे से इंद्रपुत्र 'जयंत' अमृत-कलश को लेकर
आकाश में उड़ गया। उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार
दैत्यों ने अमृत को वापस लेने के लिए जयंत का पीछा किया और घोर परिश्रम के बाद
उन्होंने बीच रास्ते में ही जयंत को पकड़ा। तत्पश्चात अमृत कलश पर अधिकार जमाने के
लिए देव-दानवों में बारह दिन तक अविराम युद्ध होता रहा।
इस परस्पर मारकाट के दौरान पृथ्वी के
चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक) पर कलश से अमृत बूँदें गिरी थीं। उस समय चंद्रमा ने घट से
प्रस्रवण होने से, सूर्य ने घट फूटने से, गुरु ने दैत्यों के
अपहरण से एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से घट की
रक्षा की। कलह शांत करने के लिए भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर यथाधिकार सबको अमृत बाँटकर पिला दिया। इस प्रकार
देव-दानव युद्ध का अंत किया गया।
अमृत प्राप्ति के लिए
देव-दानवों में परस्पर बारह दिन तक निरंतर युद्ध हुआ था। देवताओं के बारह दिन
मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं। अतएव कुंभ भी बारह होते हैं। उनमें से
चार कुंभ पृथ्वी पर होते हैं और शेष आठ कुंभ देवलोक में होते हैं, जिन्हें देवगण ही प्राप्त कर सकते हैं, मनुष्यों की वहाँ पहुँच नहीं है।
जिस समय में चंद्रादिकों ने कलश की
रक्षा की थी, उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले
चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं,
उस समय कुंभ का योग होता है अर्थात
जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का
संयोग होता है, उसी वर्ष,
उसी राशि के योग में, जहाँ-जहाँ अमृत बूँद गिरी थी, वहाँ-वहाँ कुंभ पर्व
होता है।
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