शिवरात्रि
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अन्य नाम
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महाशिवरात्रि, शिव
चौदस, शिव चतुर्दशी
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अनुयायी
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उद्देश्य
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प्रारम्भ
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पौराणिक काल
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तिथि
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उत्सव
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इस दिन शिवभक्त उपवास रखते हैं और शिव मंदिरों
में जाकर शिवलिंग पर बेल-पत्र आदि चढ़ाते तथा रात्रि को जागरण
करते हैं।
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अनुष्ठान
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रुद्राभिषेक, रुद्र
महायज्ञ, रुद्र अष्टाध्यायी का पाठ, हवन, पूजन तथा बहुत प्रकार की अर्पण-अर्चना करना।
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धार्मिक मान्यता
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अन्य जानकारी
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शिवरात्रि अथवा महाशिवरात्रि हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को शिवरात्रि पर्व मनाया जाता है। महाशिवरात्रि पर रुद्राभिषेक का
बहुत महत्त्व माना गया है और इस पर्व पर रुद्राभिषेक करने से सभी रोग और दोष
समाप्त हो जाते हैं।
शिवरात्रि से आशय
शिवरात्रि वह रात्रि है जिसका शिवतत्त्व से घनिष्ठ संबंध है। भगवान शिव की अतिप्रिय रात्रि को शिव रात्रि कहा जाता है। शिव पुराण के ईशान संहिता में बताया गया है कि फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में
आदिदेव भगवान शिव करोडों सूर्यों के समान प्रभाव वाले लिंग रूप में प्रकट हुए-
फाल्गुनकृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि।
शिवलिंगतयोद्भूत: कोटिसूर्यसमप्रभ:॥
शिवलिंगतयोद्भूत: कोटिसूर्यसमप्रभ:॥
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार फाल्गुन
कृष्ण चतुर्दशी तिथि में चन्द्रमा सूर्य के समीप होता है। अत: इसी समय जीवन रूपी चन्द्रमा का शिवरूपी सूर्य के साथ योग मिलन होता है। अत: इस चतुर्दशी को शिवपूजा करने से जीव को
अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। यही शिवरात्रि का महत्त्व है। महाशिवरात्रि का
पर्व परमात्मा शिव के दिव्य अवतरण का मंगल सूचक पर्व है। उनके निराकार से साकार
रूप में अवतरण की रात्रि ही महाशिवरात्रि कहलाती है। हमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर आदि विकारों से मुक्त करके परमसुख, शान्ति एवं
ऐश्वर्य प्रदान करते हैं।
महाशिवरात्रि
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किसी मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी 'शिवरात्रि' कही जाती है, किन्तु माघ(फाल्गुन, पूर्णिमान्त) की चतुर्दशी सबसे महत्त्वपूर्ण है और महाशिवरात्रिकहलाती है। *गरुड़पुराण[1], स्कन्दपुराण[2], पद्मपुराण[3], अग्निपुराण[4] आदि पुराणों में उसका वर्णन है। कहीं-कहीं वर्णनों में अन्तर है, किंतु प्रमुख बातें एक सी हैं। सभी में इसकी प्रशंसा की गई है। जब व्यक्ति
उस दिन उपवास करकेबिल्व पत्तियों से शिव की पूजा करता है और रात्रि भर 'जारण' (जागरण) करता है, शिव उसे नरक से बचाते हैं और आनन्द
एवं मोक्ष प्रदान करते हैं और व्यक्ति स्वयं शिव हो जाता है। दान, यज्ञ, तप, तीर्थ यात्राएँ,
व्रत इसके कोटि अंश के बराबर भी नहीं हैं।
गरुड़पुराण
में कथा
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गरुड़पुराण में इसकी
गाथा है- आबू पर्वत पर निषादों का राजा सुन्दरसेनक था,
जो एक दिन अपने कुत्ते के साथ शिकार खेलने गया। वह कोई पशु मार न
सका और भूख-प्यास से व्याकुल वह गहन वन में तालाब के किनारे रात्रि भर जागता रहा।
एक बिल्ब (बेल) के पेड़ के नीचे शिवलिंग था, अपने शरीर को
आराम देने के लिए उसने अनजाने में शिवलिंग पर गिरी बिल्व पत्तियाँ नीचे उतार लीं।
अपने पैरों की धूल को स्वच्छ करने के लिए उसने तालाब से जल लेकर छिड़का और ऐसा
करने से जल की बूँदें शिवलिंग पर गिरीं, उसका एक तीर भी उसके
हाथ से शिवलिंग पर गिरा और उसे उठाने में उसे शिवलिंग के समक्ष झुकना पड़ा। इस
प्रकार उसने अनजाने में ही शिवलिंग को नहलाया, छुआ और उसकी
पूजा की और रात्रि भर जागता रहा। दूसरे दिन वह अपने घर लौट आया और पत्नी द्वारा
दिया गया भोजन किया। आगे चलकर जब वह मरा और यमदूतों ने उसे पकड़ा तो शिव के सेवकों
ने उनसे युद्ध किया उसे उनसे छीन लिया। वह पाप रहित हो गया और कुत्ते के साथ शिव
का सेवक बना। इस प्रकार उसने अज्ञान में ही पुण्यफल प्राप्त किया। यदि इस प्रकार
कोई भी व्यक्ति ज्ञान में करे तो वह अक्षय पुण्यफल प्राप्त करता है।
अग्निपुराण, स्कन्दपुराण
में कथा
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अग्निपुराण[5] में सुन्दरसेनक बहेलिया का उल्लेख हुआ है।[6] स्कन्दपुराण में जो कथा आयी है, वह लम्बी है- चण्ड
नामक एक दुष्ट किरात था। वह जाल में मछलियाँ पकड़ता था और बहुत से पशुओं और
पक्षियों को मारता था। उसकी पत्नी भी बड़ी निर्मम थी। इस प्रकार बहुत से वर्ष बीत
गए। एक दिन वह पात्र में जल लेकर एक बिल्व पेड़ पर चढ़ गया और एक बनैले शूकर को मारने की इच्छा से रात्रि भर जागता रहा और
नीचे बहुत सी पत्तियाँ फेंकता रहा। उसने पात्र के जल से अपना मुख धोया, जिससे नीचे के शिवलिंग पर जल गिर पड़ा। इस प्रकार उसने सभी विधियों से शिव
की पूजा की, अर्थात् स्नापन किया (नहलाया), बेल की पत्तियाँ चढ़ायीं, रात्रि भर जागता रहा और उस
दिन भूखा ही रहा। वह नीचे उतरा और एक तालाब के पास जाकर मछली पकड़ने लगा। वह उस
रात्रि घर नहीं जा सका था, अत: उसकी पत्नी बिना अन्न-जल के
पड़ी रही और चिन्ताग्रस्त हो उठी। प्रात:काल वह भोजन लेकर पहुँची, अपने पति को एक नदी के तट पर देख, भोजन को तट पर ही
रख कर नदी को पार करने लगी। दोनों ने स्नान किया, किन्तु इसके
पूर्व कि किरात भोजन के पास पहुँचे, एक कुत्ते ने भोजन चट कर
लिया। पत्नी ने कुत्ते को मारना चाहा किन्तु पति ने ऐसा नहीं करने दिया, क्योंकि अब उसका हृदय पसीज चुका था। तब तक (अमावस्या का) मध्याह्न हो चुका
था। शिव के दूत पति-पत्नी को लेने आ गए, क्योंकि किरात ने
अनजाने में शिव की पूजा कर ली थी और दोनों ने चतुर्दशी पर उपवास किया था। दोनों
शिवलोक को गए।
शिवरात्रि कैसे मनायें
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तिथितत्त्व[8] के अनुसार इसमें उपवास प्रमुखता रखता है, उसमें शंकर
के कथन को आधार माना गया है- 'मैं उस तिथि पर न तो स्नान,
न वस्त्रों, न धूप, न
पूजा, न पुष्पों से उतना प्रसन्न होता हूँ, जितना उपवास से।' किन्तु हेमाद्रि, माधव आदि ने उपवास, पूजा एवं जागरण तीनों को महत्ता
दी है[9][10]
·
कालनिर्णय[11] में शिवरात्रि शब्द के विषय में एक लम्बा विवेचन उपस्थित किया गया है।
क्या यह 'रूढ' है (यथा कोई विशिष्ट
तिथि) या यह 'यौगिक' है[12],
या 'लाक्षणिक'[13] या 'योगरूढ' है[14]। निष्कर्ष यह निकाला गया है कि यह शब्द पंकज के सदृश योगरूढ है जो
कि पंक से अवश्य निकलता है[15],
किन्तु वह केवल पंकज (कमल) से ही सम्बन्धित है (यहाँ रूढि या
परम्परा) न कि मेढक से।
·
शिवरात्रि नित्य एवं
काम्य दोनों है। यह नित्य इसलिए है कि इसके विषय में वचन है कि यदि मनुष्य इसे
नहीं करता तो पापी होता है, 'वह व्यक्ति जो तीनों लोकों के स्वामी रुद्र की
पूजा भक्ति से नहीं करता, वह सहस्त्र जन्मों में भ्रमित रहता
है।' ऐसे भी वचन हैं कि यह व्रत प्रति वर्ष किया जाना चाहिए-
'हे महादेवी, पुरुष या पतिव्रता नारी
को प्रतिवर्ष शिवरात्रि पर भक्ति के साथ महादेव की पूजा करनी चाहिए।[16] यह व्रत काम्य भी है, क्योंकि इसके करने से फल भी
मिलते हैं।
·
ईशानसंहिता[17] के मत से यह व्रत सभी प्रकार के मनुष्यों द्वारा सम्पादित हो सकता है- 'सभी मनुष्यों को, यहाँ तक की चाण्डालों को भी
शिवरात्रि पापमुक्त करती है, आनन्द देती है और मुक्ति देती
है।' ईशानसंहिता में व्यवस्था है- 'यदि
विष्णु या शिव या किसी देव का भक्त शिवरात्रि का त्याग करता है तो वह अपनी पूजा
(अपने आराध्य देवी की पूजा) के फलों को नष्ट कर देता है। जो इस व्रत को करता है
उसे कुछ नियम मानने पड़ते हैं, यथा अहिंसा, सत्य, अक्रोध, ब्रह्मचर्य,
दया, क्षमा का पालन करना होता है, उसे शांत मन, क्रोधहीन, तपस्वी,
मत्सरहित होना चाहिए; इस व्रत का ज्ञान उसी को
दिया जाना चाहिए जो गुरुपादानुरागी हो, यदि इसके अतिरिक्त
किसी अन्य को यह दिया जाता है तो (ज्ञानदाता) नरक में पड़ता है।
·
इस व्रत का उचित काल
है रात्रि, क्योंकि रात्रि में भूत, शक्तियाँ,
शिव[18] घूमा करते हैं। अत: चतुर्दशी को उनकी पूजा होनी चाहिए[19]
·
स्कन्दपुराण[20] में आया है कि कृष्ण पक्ष की उस चतुर्दशी को उपवास करना चाहिए, वह तिथि
सर्वोत्तम है और शिव से सायुज्य उत्पन्न करती है।[21] शिवरात्रि के लिए वही तिथि मान्य है जो उस काल से आच्छादित रहती है। उसी
दिन व्रत करना चाहिए, जब कि चतुर्दशी अर्धरात्रि के पूर्व
एवं उपरान्त भी रहे[22]। हेमाद्रि में आया है कि शिवरात्रि नाम वाली वह चतुर्दशी जो
प्रदोष काल में रहती है, व्रत के लिए मान्य होनी चाहिए; उस तिथि पर उपवास करना चाहिए, क्योंकि रात्रि में
जागरण करना होता है[23]}।
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व्रत के लिए उचित दिन
एवं काल के विषय में पर्याप्त विभेद हैं[24]। निर्णयामृत[25] ने 'प्रदोष' शब्द पर बल दिया
है तथा अन्य ग्रंथों में 'निशीथ' एवं
अर्धरात्रि पर बल दिया है।[26] यहाँ हम निर्णयकारों के शिरोमणि माधव के निर्णय प्रस्तुत कर रहे हैं। यदि
चतुर्दशी प्रदोष-निशीथ व्यापिनी हो तो व्रत उसी दिन करना चाहिए। यदि वह दो दिनों
वाली हो अर्थात् वह त्रयोदशी एवं अमावस्या दोनों से व्याप्त हो और वह दोनों दिन
निशीथ काल तक रहने वाली हो या दोनों दिनों तक इस प्रकार न उपस्थित रहने वाली हो तो
प्रदोष व्याप्त व्यापक निश्चय करने वाली होती है; जब
चतुर्दशी दोनों दिनों तक प्रदोषव्यापिनी हो या दोनों दिनों तक उससे निर्मुक्त हो
तो निशीथ में रहने वाली ही नियामक होती है; किंतु यदि वह दो
दिनों तक रहकर केवल किसी से प्रत्येक दिन (प्रदोष या निशीथ) व्याप्त हो तो जया से
संयुक्त अर्थात् त्रयोदशी तिथि नियामक होती है।[27]
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प्राचीन कालों में
शिवरात्रि के सम्पादन का विवरण गरुड़पुराण [28] में मिलता है- त्रयोदशी को शिव सम्मान करके व्रती को कुछ प्रतिबन्ध मानने
चाहिए। उसे घोषित करना चाहिए- 'हे देव, मैं चतुर्दशी की रात्रि में जागरण करूँगा। मैं यथाशक्ति दान, तप एवं होम करूँगा। हे शम्भु, मैं चतुर्दशी को भोजन
नहीं करूँगा, केवल दूसरे दिन खाऊँगा। हे शम्भु, आनन्द एवं मोक्ष की प्राप्ति के लिए आप मेरे आश्रय बनें।' व्रती को व्रत करके गुरु के पास पहुँचना चाहिए और पंचामृत के साथ पंचगव्य
से लिंग को स्नान कराना चाहिए। उसे इस मंत्र का पाठ करना चाहिए- 'ओम नम: शिवाय'। चन्दन लेप से आरम्भ कर सभी उपचारों
के साथ शिव पूजा करनी चाहिए और अग्नि में तिल, चावल एवं घृतयुक्त
भात डालना चाहिए। इस होम के उपरान्त पूर्णाहुति[29] करनी चाहिए और (शिव विषयक) सुन्दर कथाएँ एवं गान सुनने चाहिए। व्रती को
पुन: अर्धरात्रि, रात्रि के तीसरे पहर एवं चौथे पहर में
आहुतियाँ डालनी चाहिए। सूर्योदय के लगभग उसे 'ओम नम: शिवाय'
का मौन पाठ करते हुए शिव प्रार्थना करनी चाहिए- 'हे देव, आपके अनुग्रह से मैंने निर्विघ्न पूजा की है,
हे लोकेश्वर, हे शिव, मुझे
क्षमा करें। इस दिन जो भी पुण्य मैंने प्राप्त किया और मेरे द्वारा शिव को जो कुछ
भी प्रदत्त हुआ है, आज मैंने आपकी कृपा से ही यह व्रत पूर्ण
किया है; हे दयाशील, मुझ पर प्रसन्न
हों, और अपने निवास को जाएँ; इसमें कोई
संदेह नहीं कि केवल आपके दर्शन मात्र से मैं पवित्र हो चुका हूँ।' व्रती को चाहिए कि वह शिव भक्तों को भोजन दे, उन्हें
वस्त्र, छत्र आदि दे- 'हे देवाधिदेव,
सर्वपदार्थाधिपति, आप लोगों पर अनुग्रह करते
हैं, मैंने जो कुछ श्रद्धा से दिया है उससे आप प्रसन्न हों।'
इस प्रकार क्षमा मांग लेने पर व्रती को संकल्प करके 12 मासों की
चतुर्दशी को जागरण करना चाहिए। व्यक्ति यह व्रत करके 12 ब्राह्मणों को खिलाकर तथा
दीपदान करके स्वर्ग प्राप्त कर सकता है।
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तिथितत्त्व में कुछ
मनोरंजक विस्तार पाया जाता है[30]। लिंग स्नान रात्रि के प्रथम प्रहर में दूध से,
दूसरे में दही से, तीसरे में घृत से, चौथे में मधु से कराना चाहिए। चारों प्रहरों के मंत्र ये हैं- 'ह्रीं ईशानाय नम:', ह्रीं अधोराय नम:', 'ह्रीं वामदेवाय नम:' एवं 'ह्रीं
सद्योजाताय नम:'। चारों प्रहरों में अर्ध्य के समय के मंत्र
भी विभिन्न हैं। ऐसा भी प्रतिपादित है कि प्रथम प्रहर में गान एवं नृत्य होना
चाहिए।
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वर्षक्रियाकौमुदी[31] में आया है कि दूसरे, तीसरे एवं चौथे प्रहर में
व्रती को पूजा, अर्ध्य, जप एवं (शिव
संबंधी) कथा श्रवण करना चाहिए, स्तोत्रपाठ करना चाहिए एवं
लेटकर प्रणाम करना चाहिए; प्रात:काल व्रती को अर्ध्यजल के
साथ क्षमा मांगनी चाहिए। यदि माघ कृष्ण चतुर्दशी रविवार या मंगलवार को पड़े तो वह
व्रत के लिए उत्तम होती है[32]
·
24,
14 या 12 वर्षों तक शिवरात्रि व्रत करने वाले को अवधि के उपरान्त
उद्यापन करना पड़ता है। इस विषय में पुरुषार्थचिंतामणि [33] एवं व्रतराज [34] आदि ग्रंथों में अति विस्तार के साथ वर्णन है।
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किसी भी शिवरात्रि के पारण के विषय में जितने वचन हैं, वे विवाद ग्रस्त हैं।[35] 'स्कन्द' के दो वचन ये हैं- 'जब कृष्णाष्टमी, स्कन्दषष्ठी एवं शिवरात्रि पूर्व एवं पश्चात् की तिथियों से संयुक्त की
जाती है तो पूर्व वाली तिथि प्रतिपादित कृत्य के लिए मान्य होती है और पारण
प्रतिपादित तिथि के अन्त में किया जाना चाहिए; चतुर्दशी को उपवास करके और उसी तिथि को वही व्यक्ति कर सकता है, जिसने लाखों अच्छे कर्म किये हों।' धर्मसिंधु[36] का निष्कर्ष यों हैं-
'यदि चतुर्दशी रात्रि के तीन प्रहरों के पूर्व ही
समाप्त हो जाये तो पारण तिथि के अन्त में होना चाहिए; यदि वह
तीन प्रहरों से आगे चली जाये तो उसके बीच में ही सूर्यादय के समय पारण करना चाहिए,
ऐसा माधव आदि का मत है।' निर्णयसिंधु का मत यह
है कि यदि चतुर्दशी तिथि रात्रि के तीन प्रहरों के पूर्व समाप्त हो जाये तो पारण
चतुर्दशी के बीच में ही होना चाहिए न कि उसके अन्त में।
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आजकल धर्मसिंधु में
उल्लिखित विधि का पालन कदाचित ही कोई करता हो। उपवास किया जाता है,
शिव की पूजा होती है और लोग शिव की कथाएँ सुनती हैं। सामान्य जन
(कहीं-कहीं) ताम्रफल (बादाम), कमल पुष्प दल, अफीम के बीज, धतूरे आदि से युक्त या केवल भाँग का
सेवन करते हैं। बहुत से शिव मन्दिरों में मूर्ति पर लगातार जलधारा से अभिषेक किया
जाता है।
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ऐतरेय ब्राह्मण[37] में प्रजापति के उस पाप का उल्लेख है, जो उन्होंने
अपनी पुत्री के साथ किया था। वे मृग बन गये। देवों ने अपने भयंकर रूपों से रुद्र
का निर्माण किया और उनसे मृग को फाड़ डालने को कहा। जब रुद्र ने मृग को विद्ध कर
दिया तो वह (मृग) आकाश में चला गया। लोग इसे मृग (मृगशीर्ष) कहते हैं। रुद्र
मृगव्याध हो गये और (प्रजापति की) कन्या रोहिणी बन गयी और तीर[38] तीन धारा वाले तारों के समान बन गया।
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लिंगपुराण[39] में एक निषाद की कथा है। निषाद ने एक मृग, उसकी
पत्नी और उनके बच्चों को मारने के क्रम में शिवरात्रि व्रत के सभी कृत्य अज्ञात
रूप से कर डाले। वह एवं मृग के कुटुम्ब के लोग अंत में व्याध के तारे के साथ
मृगशीर्ष नक्षत्र बन गये।
शिव भक्तों का महापर्व
महाशिवरात्रि का पर्व शिवभक्तों द्वारा अत्यंत श्रद्धा व भक्ति से
मनाया जाता है। यह त्योहार हर वर्ष फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चौदहवीं तिथि को
मनाया जाता है। अंग्रेज़ी कलेंडर के अनुसार यह दिन फ़रवरी या मार्च में आता है। शिवरात्रि
शिव भक्तों के लिए बहुत शुभ है। भक्तगण विशेष पूजा आयोजित करते हैं,
विशेष ध्यान व नियमों का पालन करते हैं । इस विशेष दिन मंदिर शिव
भक्तों से भरे रहते हैं, वे शिव के चरणों में प्रणाम करने को
आतुर रहते हैं। मन्दिरों की सजावट देखते ही बनती है। हज़ारों भक्त इस दिन कावड़
में गंगा जल लाकर भगवान शिव को स्नान कराते हैं।
महादेव
शिव के पूजन का महापर्व
भारतीय त्रिमूर्ति के अनुसार भगवान शिव प्रलय के प्रतीक हैं।
त्रिर्मूति के दो और भगवान हैं, विष्णु तथा ब्रह्मा। शिव का
चित्रांकन एक क्रुद्ध भाव द्वारा किया जाता है। ऐसा प्रतीकात्मक व्यक्ति भाव,
जिसके मस्तक पर तीसरी आंख है; जो जैसे ही
खुलती है, अग्नि का प्रवाह बहना प्रारम्भ हो जाता है। पुराणों के अनुसार जब कामदेव ने शिव के ध्यान को तोडने की चेष्टा की थी, तो शिव का तीसरा नेत्र खोलने से कामदेव जलकर राख हो गया था।
पौराणिक कथाएँ
महाशिवरात्रि के महत्त्व से संबंधित तीन कथाएँ इस पर्व से जुड़ी
हैं:-
प्रथम
कथा
एक बार मां पार्वती ने शिव से पूछा कि कौन-सा व्रत उनको सर्वोत्तम भक्ति व पुण्य प्रदान कर
सकता है? तब शिव ने स्वयं इस शुभ दिन के विषय में बताया था
कि फाल्गुन कृष्ण पक्ष के चतुर्दशी की रात्रि को जो उपवास करता है, वह मुझे प्रसन्न कर लेता है। मैं अभिषेक, वस्त्र, धूप, अर्ध्य तथा पुष्प
आदि समर्पण से उतना प्रसन्न नहीं होता, जितना कि व्रत-उपवास
से।
द्वितीय
कथा
इसी दिन, भगवान विष्णु व ब्रह्मा के समक्ष सबसे पहले शिव का अत्यंत प्रकाशवान आकार प्रकट हुआ था। ईशान
संहिता के अनुसार – श्रीब्रह्मा व श्रीविष्णु को अपने अच्छे
कर्मों का अभिमान हो गया। इससे दोनों में संघर्ष छिड़ गया। अपना महात्म्य व
श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए दोनों आमादा हो उठे। तब शिव ने हस्तक्षेप करने का
निश्चय किया, चूंकि वे इन दोनों देवताओं को यह आभास व विश्वास दिलाना चाहते थे कि जीवन भौतिक आकार-प्रकार से कहीं
अधिक है। शिव एक अग्नि स्तम्भ के रूप में प्रकट हुए। इस स्तम्भ का आदि या अंत
दिखाई नहीं दे रहा था। विष्णु और ब्रह्मा ने इस स्तम्भ के ओर-छोर को जानने का
निश्चय किया। विष्णु नीचे पाताल की ओर इसे जानने गए और ब्रह्मा अपने हंस वाहन पर
बैठ ऊपर गए। वर्षों यात्रा के बाद भी वे इसका आरंभ या अंत न जान सके। वे वापस आए,
अब तक उनक क्रोध भी शांत हो चुका था तथा उन्हें भौतिक आकार की
सीमाओं का ज्ञान मिल गया था। जब उन्होंने अपने अहम् को समर्पित कर दिया, तब शिव प्रकट हुए तथा सभी विषय वस्तुओं को पुनर्स्थापित किया। शिव का यह
प्राकट्य फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि को ही हुआ था। इसलिए इस रात्रि को
महाशिवरात्रि कहते हैं।
तृतीय
कथा
इसी दिन भगवान शिव और आदि शक्ति का विवाह हुआ था। भगवान शिव का
ताण्डव और भगवती का लास्यनृत्य दोनों के समन्वय से ही सृष्टि में संतुलन बना हुआ
है, अन्यथा ताण्डव नृत्य से सृष्टि खण्ड- खण्ड हो
जाये। इसलिए यह महत्त्वपूर्ण दिन है।
महान अनुष्ठानों का दिन
शिव की जीवन शैली के अनुरूप, यह
दिन संयम से मनाया जाता है। घरों में यह त्योहार संतुलित व मर्यादित रूप में मनाया
जाता है। पंडित व पुरोहित शिवमंदिर में एकत्रित हो बड़े-बड़े अनुष्ठानों में भाग लेते हैं। कुछ
मुख्य अनुष्ठान है- रुद्राभिषेक, रुद्र महायज्ञ, रुद्र अष्टाध्यायी का पाठ, हवन, पूजन तथा बहुत प्रकार की अर्पण-अर्चना करना। इन्हें फूलों व शिव के एक हज़ार नामों के उच्चारण के साथ किया जाता है। इस धार्मिक
कृत्य को लक्षार्चना या कोटि अर्चना कहा गया है। इन अर्चनाओं को उनकी गिनती के
अनुसार किया जाता है। जैसे –
1. लक्ष: लाख बार
2.
कोटि: एक करोड बार ।
ये पूजाएं देर दोपहर तक तथा पुन: रात्रि तक चलती हैं। इस दिन उपवास
किये जाते हैं, जब उनकी नितांत आवश्यकता हो।
शिवरात्रि कैसे मनायें
·
भगवान शिव की विस्तृत
पूजा करें, रुद्राभिषेक करें तथा शिव के मन्त्र
देव-देव महादेव नीलकंठ नमोवस्तु ते।
कर्तुमिच्छाम्यहं देव शिवरात्रिव्रतं तब॥
तब प्रसादाद् देवेश निर्विघ्न भवेदिति।
कामाद्या: शत्रवो मां वै पीडांकुर्वन्तु नैव हि॥
कर्तुमिच्छाम्यहं देव शिवरात्रिव्रतं तब॥
तब प्रसादाद् देवेश निर्विघ्न भवेदिति।
कामाद्या: शत्रवो मां वै पीडांकुर्वन्तु नैव हि॥
का यथा शक्ति पाठ करें और शिव महिमा से युक्त भजन गांए।
·
‘ऊँ नम: शिवाय’ मन्त्र का
उच्चारण जितनी बार हो सके, करें तथा मात्र शिवमूर्ति और
भगवान शिव की लीलाओं का चिंतन करें।
·
रात्रि में चारों
पहरों की पूजा में अभिषेक जल में पहले पहर में दूध, दूसरे में दही, तीसरे में घी और चौथे में शहद को
मुख्यत: शामिल करना चाहिए।
शिवरात्रि या शिवचौदस नाम क्यों
फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की महादशा यानी आधी रात के वक़्त भगवान शिव
लिंग रूप में प्रकट हुए थे, ऐसा ईशान संहिता में कहा गया है। इसीलिए सामान्य
जनों के द्वारा पूजनीय रूप में भगवान शिव के प्राकट्य समय यानी आधी रात में जब
चौदस हो उसी दिन यह व्रत किया जाता है।
बेल (बिल्व) पत्र का महत्त्व
बेल (बिल्व) के पत्ते श्रीशिव को अत्यंत प्रिय हैं। शिव पुराण में एक शिकारी की कथा है। एक बार उसे जंगल में देर हो गयी, तब उसने एक बेल वृक्ष पर रात बिताने का निश्चय किया। जगे रहने के लिए उसने
एक तरकीब सोची- वह सारी रात एक-एक कर पत्ता तोडकर नीचे फेंकता जाएगा। कथानुसार,
बेलवृक्ष के ठीक नीचे एक शिवलिंग था। शिवलिंग पर प्रिय पत्तों का अर्पण होते देख, शिव
प्रसन्न हो उठे। जबकि शिकारी को अपने शुभ कृत्य का आभास ही नहीं था। शिव ने उसे
उसकी इच्छापूर्ति का आशीर्वाद दिया। यह कथा न केवल यह बताती है कि शिव को कितनी
आसानी से प्रसन्न किया जा सकता है, बल्कि यह भी कि इस दिन
शिव पूजन में बेल पत्र का कितना महत्त्व है।
शिवलिंग क्या है
वातावरण सहित घूमती धरती या सारे अनंत ब्रह्माण्ड का अक्स ही लिंग
है। इसीलिए इसका आदि और अन्त भी साधारण जनों की क्या बिसात,
देवताओं के लिए भी अज्ञात है। सौरमण्डल के ग्रहों के घूमने की कक्षा ही शिव तन पर लिपटे सांप हैं। मुण्डकोपनिषद
के कथानुसार सूर्य,चांद और अग्नि ही आपके तीन नेत्र हैं। बादलों के झुरमुट जटाएं, आकाश जल ही
सिर पर स्थित गंगा और सारा ब्रह्माण्ड ही आपका शरीर है। शिव कभी गर्मी के आसमान (शून्य) की
तरह कर्पूर गौर या चांदी की तरह दमकते, कभी सर्दी के आसमान की तरह मटमैले
होने से राख भभूत लिपटे तन वाले हैं। यानी शिव सीधे-सीधे ब्रह्माण्ड या अनन्त
प्रकृति की ही साक्षात मूर्ति हैं। मानवीकरण में वायु प्राण, दस दिशाएँ, पंचमुख महादेव के दस कान, हृदय सारा विश्व, सूर्य नाभि या केन्द्र और अमृत
यानी जलयुक्त कमण्डलु हाथ में रहता है। लिंग शब्द का अर्थ चिह्न, निशानी या प्रतीक है। शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड और निराकार परमपुरुष का प्रतीक
होने से इसे लिंग कहा गया है। स्कन्द पुराण में कहा है कि आकाश स्वयं लिंग है । धरती उसका पीठ या आधार है और सब अनन्त
शून्य से पैदा हो उसी में लय होने के कारण इसे लिंग कहा गया है।
शिवलिंग
मंदिरों में बाहर क्यों
जनसाधारण के देवता होने से, सबके लिए सदा गम्य या पहुँच में रहे,
ऐसा मानकर ही यह स्थान तय किया गया है। ये अकेले देव हैं जो गर्भगृह
में भक्तों को दूर से ही दर्शन देते हैं। इन्हें तो बच्चे-बूढे-जवान जो भी जाए
छूकर, गले मिलकर या फिर पैरों में पड़कर अपना दुखड़ा सुना
हल्के हो सकते हैं। भोग लगाने अर्पण करने के लिए कुछ न हो तो पत्ता-फूल, या अंजलि भर जल चढ़ाकर भी खुश किया जा सकता है।
जल
क्यों चढ़ता है?
रचना या निर्माण का पहला पग बोना, सींचना या उडेलना हैं। बीज बोने के लिए गर्मी का ताप और जल की नमी की एक
साथ जरुरत होती है। अत: आदिदेव शिव पर जीवन की आदिमूर्ति या पहली रचना, जल चढ़ाना ही नहीं लगातार अभिषेक करना अधिक महत्त्वपूर्ण होता जाता है।
सृष्टि स्थिति संहार लगातार, बार–बार
होते ही रहना प्रकृति का नियम है। अभिषेक का बहता जल चलती, जीती-जागती
दुनिया का प्रतीक है।
जब
मंदिर न जा सकें
लिंग पदार्थ :-
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मिट्टी
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कलवा
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कपूर, कुमकुम
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फूल
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आट्टा
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गुड़ ,चिंनी
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फल
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अनाज
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कामना :-
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सब कामनाएं
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विरोध शमन
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सुख
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राज्य
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वंस वृद्धि
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स्वास्थ
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संतान
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बरकत
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लिंग पुराण आदि ग्रन्थों में कहा गया है कि घर पर लकड़ी, धातु, मिट्टी, रेत, पारद, स्फटिक आदि के
बने लिंग पर अर्चना की जा सकती है। अथवा साबुत बेल फल, आंवला, नारियल, सुपारी या आटे या मिट्टी की गोल पर घी चुपडकर अभिषेक पूजा कर सकते हैं। विशेष मनोरथ के तालिका दे रहे हैं कपड़े बांध कर या
लपेटकर इनसे लिंग बना सकते हैं।
शिव
महादेव क्यों ?
बड़ा या महान बनने
के लिए त्याग, तपस्या, धीरज, उदारता और सहनशक्ति की दरकार होती है। विष को अपने भीतर ही सहेजकर
आश्रितों के लिए अमृत देने वाले होने से और विरोधों, विषमताओं
को भी संतुलित रखते हुए एक परिवार बनाए रखने से शिव महादेव हैं। आपके समीप पार्वती का शेर, आपका बैल, शरीर के
सांप, कुमार कार्तिकेय का मोर, गणेशजी का मूषक, विष की अग्नि और गंगा का जल, कभी पिनाकी धनुर्धर वीर तो कभी नरमुण्डधर
कपाली, कहीं अर्धनारीश्वर तो कहीं महाकाली के पैरों में
लुण्ठित, कभी मृड यानी सर्वधनी तो कभी दिगम्बर, निमार्णदेव भव और संहारदेव रुद्र, कभी भूतनाथ कभी
विश्वनाथ आदि सब विरोधी बातों का जिनके प्रताप से एक जगह पावन संगम होता हो,
वे ही तो देवों के देव महादेव हो सकते हैं।
शनि
शिवपुत्र क्यों ?
संस्कृत शब्द शनि का अर्थ जीवन या जल और अशनि का अर्थ आसमानी बिजली या आग है। शनि की पूजा
के वैदिक मन्त्र में वास्तव में गैस, द्रव और ठोस रूप में जल की तीनों अवस्थाओं की अनुकूलता की ही प्रार्थना है। खुद मूल
रूप में जल होने से शनि का मानवीकरण पुराणों में शिवपुत्र या शिवदास के रूप में किया गया है। इसीलिए कहा जाता है कि
शिव और शनि दोनों ही खुश हों तो निहाल करें और नाराज़ हों तो बेहाल करते हैं।
सूर्य जीवन का आधार, सृष्टि स्थिति का मूल, वर्षा का कारण होने से पुराणों में खुद शिव या विष्णु का रूप माना गया
है। निर्देश है कि शिव या विष्णु की पूजा, सूर्य पूजा के
बिना अधूरी है। खुद सूर्य जलकारक दायक पोषक होने और शनि स्वयं जल रूप होने इस
बात में कोई विरोध नहीं हैं।
शिव को
पंचमुख क्यों ?
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